छतीसगढ़ कलचुरी कालीन मूर्तिकला || Kalchuri Kalin Murtikala
भारतीय कला के इतिहास में कलचुरी कला (कलचुरी कालीन मूर्तिकला || Kalchuri Kalin Murtikala) का अपना विशिष्ट स्थान है । यद्यपि पुरातत्व विधाओं की दृष्टि से इसका योगदान नगण्य है, इसलिए चेदि शिल्प अंधकार के आवरण में चला गया है किंतु संभावना है कि इतिहासकारों की नई पीढ़ी अवश्य ही इस और प्रयत्नशील होगी । कलचुरीओ ने अनेक मंदिर धर्मशाला , अध्ययन शाला, मट्ठा इत्यादि का निर्माण करवाया, किंतु अवशेष के रूप में केवल ही केवल मंदिर, ताम्रपत्र एवं उनके सिक्के ही वर्तमान में प्राप्त होते हैं ।
कलचुरी स्थापत्य की अपनी एक स्वतंत्र से ली थी जिसका काल 1000 से लेकर 1400 ईसवी निर्धारित किया गया है जबकि कलचुरी काल को 1400-1700 ईसवी के मध्य रखा गया है। परवर्ती काल के अवशेष कम प्राप्त होते हैं एवं कलचुरी कालीन मूर्तिकला का प्रभाव कम दिखाई पड़ता है।
कलचुरी शिल्प (कलचुरी कालीन मूर्तिकला || Kalchuri Kalin Murtikala) मंदिर के द्वारों पर गजलक्ष्मी अथवा शिव की मूर्ति पाई जाती है । गजलक्ष्मी वंश की कुलदेवी थी और वह शैव धर्म के उपासक थे। इनके प्राप्त सिखों पर “लक्ष्मी देवी” अंकित प्राप्त होती है तथा प्राप्त ताम्रपत्र पर लेखन की शुरुआत “ओम नमः शिवाय” से शुरू होता है ।
कलचुरी कालीन मूर्तिकला का इतिहास
भारतीय मूर्तिकला के इतिहास में छत्तीसगढ़ में निर्मित प्रतिमाओं का विशेष महत्व है । इस क्षेत्र में ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी से लेकर के चौदहवीं शताब्दी ईस्वी तक मूर्तिकला के अनेक उत्कृष्ट उदाहरण प्राप्त होते हैं । कार्यक्रम एवं शैली उप वर्गों के आधार पर इन प्रतिमाओं को निम्न श्रेणियों में विभाजित किया गया है :-
1 . प्रथम वर्ग के अंतर्गत प्रारंभिक मूर्ति शिल्प – द्वितीय ईसा पूर्व से गुप्त वाकाटक काल तक अर्थात पांचवी सदी ईसवी तक
2 . गुप्त उत्तर काल शिल्प – अर्थात 500 ईसवी से लेकर के 800 ईसवी तक
3 . कलचुरी कालीन मूर्तिकला अर्थात मध्यकालीन शिल्प अर्थात 1000 से 1400 ईसवी तक
4 . गोंड कालीन मूर्तिकला शिल्प अर्थात 1500 साल से 1700 साल तक
1 . प्रारंभिक मूर्ति शिल्प (200 – 500 ईसवी तक)
इस वर्ग की प्रतिभाओं के अंतर्गत अत्यंत कम प्रतिमाएं उपलब्ध है । इस वर्ग की प्रतिभाओं में बिलासपुर जिले के बूढ़ी खार(मल्हार) नामक स्थान से उपलब्ध शिल्प साक्षी के अनुसार देश की प्राचीनतम अभी लिखित चतुर्भुज विष्णु की प्रतिमा प्राप्त हुई है यह प्रतिमा चारों ओर से उकेर कर बनाई गई है तथा इसमें यक्ष परंपरा का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है । लिपि के आधार पर इसे ईसा पूर्व द्वितीय सताब्दी का स्वीकार किया गया है ।
इसके पश्चात कुछ शताब्दियों तक मूर्ति शिल्प का कोई साक्ष उपलब्ध नहीं है । लगभग तृतीय चतुर्थ शताब्दी की विशालकाय प्रतिमा पुनः मल्हार में प्राप्त हुई है । इनमें से एक प्रतिमा शिव है , जिसमें मात्र धड़ ही प्राप्त हुआ है और कमर के नीचे का हिस्सा खंडित है । दूसरी प्रतिमा लिंग के रूप में अर्धनारीश्वर की भांति प्रतीत होती है जो यक्ष प्रतिमा का प्रभाव जिस पर स्पष्ट दिखाई देता है ।
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2 . गुप्त उत्तर काल शिल्प – अर्थात 500 ईसवी से लेकर के 800 ईसवी तक
इस वर्ग के अंतर्गत गुप्त वाकाटक काल के पश्चात स्थानीय राजवंशों , सरभपुरीय , नल वंश एवं सोमवंशी काल में निर्मित कला कलाकृतियां आती है । इन कला अवशेषों का काल पांचवी से आठवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास माना जाता है । इस काल के शिल्प के अंतर्गत स्वतंत्र प्रतिमाओं के साथ मंदिर स्थापत्य के अंतर्गत प्रयुक्त कलाकृतियों भी सम्मिलित की गई है ।
इस काल में ताला गांव, सिरपुर, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण राजीम आदि स्थानों में छत्तीसगढ़ की सर्वश्रेष्ठ कलाकृतियों का निर्माण हुआ विभिन्न स्थलों में प्रयुक्त पाषाण खंड तथा कला के अध्ययन से इनका कार्यक्रम निर्धारित किया गया है काल की प्रमुख कृतियों का विवरण नीचे दिया जा रहा है :-
ताला गांव के भग्न जेठानी मंदिर से अनेक दीवाल का प्रतिमा प्राप्त हुई, जो स्थानीय परतदार पत्थरों से निर्मित है , जिससे काल के प्रभाव से इनकी ऊपरी परतों के छरण हो जाने के कारण इन प्रतिमाओं की कलात्मक स्पष्ट रूप नष्ट हो गए हैं। यहां प्राप्त स्थापत्य खंडों के अवशेषों के विश्लेषण से यह प्रतिमाएं गुप्तकालीन मूर्तियों से अद्भुत समानता रखती है। यहां के देवरानी मंदिर का द्वार स्तंभ भारती कलाकार एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इनमें पुष्प लता, गंगा यमुना, उमा महेश्वर , शिव पार्वती की चौसर कीड़ा , गंगा अवतरण, कीर्ति मुख आदि का अत्यंत सुंदर अंकन है ।
इसके अतिरिक्त ताला गांव में मिली प्रतिमाओं के कार्तिकेय तथा विलक्षण शिव की प्रतिमाएं भी उल्लेखित है । जहां मिली छठी शताब्दी की रूद्र शिव प्रतिमा जिसका आकार 9 *4* 2.5 तथा वजन 5 टन है । अड़भार में स्थित मंदिर का द्वार स्तंभ, शिवरीनारायण की शंख चक्र युक्त प्रतिमा, राजीमा के मंदिरों पर स्थापित प्रतिमाएं नरसिंह , त्रिविक्रम वामन एवं योग नारायण , वराह , गंगा यमुना तथा सिरपुर के बुद्ध विहार से प्राप्त बुध तथा बौद्ध प्रस्तर तथा धातुएं प्रतिमाएं।मल्हार की स्कंदमाता , जातक कथाओं से उत्पन्न स्तंभ , बौद्ध धर्म की प्रतिमाएं , देव मंदिर के द्वार साख , मठपुरैना तथा तुरतुरिया की कलाकृतियां विशेष उल्लेखनीय है ।
बस्तर क्षेत्र में इसी काल में राज्य करने वाले नल वंश के शासकों की काल से संबंधित कलाकृतियों में बस्तर जिले के गढ़धनोरा की विष्णु से संबंधित प्रतिमाएं हैं , जो अनुमान के आधार पर छठवीं शताब्दी ईस्वी की है । यहीं से एक नरसिंह प्रतिमा भी प्राप्त हुई है ।
भोगापाल स्थित बौद्ध स्तूप के अवशेष तथा बुद्ध प्रतिमा अत्यंत महत्वपूर्ण है जो बस्तर जैसे अंचल में बौद्ध धर्म के विस्तार को प्रदर्शित करते हैं । इस काल की प्रतिमाएं एवं कल क्लासेस गुप्तकालीन कला से अधिक समानता रखते हैं ।
प्रतिमाओं के सामान्य लक्षण अंडाकार ,गोल , मुखाकृति, सुंदर भाव भंगिमा, पारीक अनुपातिक, सीमित अलंकरण एवं आभूषण तथा पारदर्शी वस्त्र भरण है ।
संरक्षित- इस कार्य की कुछ प्रतिमाएं एवं स्थापत्य अवशेष रायपुर स्थित गुरु घासीदास संग्रहालय में सुरक्षित है, जिनमें से प्रमुख सिरपुर की लिखित ध्यानी बुध, मंजूश्री , पार्श्वनाथ रतनपुर की कल्याण सुंदर मंदिर , धमतरी के शिव मंदिर के द्वार , देव कूट एवं मल्हार से प्राप्त स्तंभ उल्लेखनीय है। इसी तरह से जगदलपुर, मल्हार एवं बिलासपुर संग्रहालय में भी शिल्प अवशेष सुरक्षित है।
3 . कलचुरी कालीन मूर्तिकला अर्थात 1000 से 1400 ईसवी तक
कलचुरी कालीन मूर्तिकला (Kalchuri Kalin Murtikala) के अंतर्गत मुख्यता कलचुरी तथा उसके समकालीन राजाओं के काल में निर्मित कलाकृतियां आती हैं वस्तुतः द्वितीय वर्ग की प्रतिमाओं के पश्चात कला की दृष्टि से थोड़ा सा अंतराल दिखाई पड़ता है । लगभग 10वीं 11वीं शताब्दी ईस्वी से प्रारंभ होकर चौदहवीं शताब्दी तक की प्रतिमाएं इस वर्ग में सम्मिलित की गई है इस काल की प्रतिमाओं की मुखाकृति में थोड़ा सा परिवर्तन दिखाई देता है, यह पहले की अपेक्षा लंबवत है तथा ठुड्ढियों मैं उधार दिखाई देता है ।
ओष्ठ अधिक लंबी एवं पतले अंकित किए जाने लगे हैं । इसके साथ ही वस्त्र भूषण में इतना अधिक हो गया की भाव भंगिमा का पक्ष छीन हो गया। इस प्रकार कालका तकनीकी की दृष्टि से सर्वत्र एकतरता परिलक्षित दिखलाई देता है।
इस कार की प्रतिमाएं छत्तीसगढ़ के अनेक स्थलों में प्राप्त हुई है । प्रतिमाओं का निर्माण बलुवे पत्थर अथवा काले ग्रेनाइट से किया गया है । यह प्रतिमाएं वैष्णव, शैव , सौर , जैन एवं बौद्ध संप्रदायों से संबंधित है इसके अतिरिक्त राजा महाराजाओं, प्राणियों, सामंतों सामंत तथा उपासिकों की प्रतिमा का भी निर्माण किया गया था ।
कलचुरी कालीन मूर्तिकला (Kalchuri Kalin Murtikala) शिल्प के अवशेष जांजगीर , शिवरीनारायण , मल्हार, खरौद, रतनपुर, पाली, तुम मान, सिरपुर, र राजीम , आरंग, कोटगढ़, अड़भार आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं ।
इन स्थलों की प्रतिमाओं में से कुछ कला के उत्कृष्ट उदाहरण है, इनमें से कुछ रायपुर संग्रहालय में संग्रहित या संरक्षित की गई है जिनमें विष्णु , उमामाहेश्वर, राजपुरुष, सिरपुर की बुद्ध प्रतिमा, गुमरी की कार्तिकेय, बिरखा भटियारी के त्रिपुरा अंतर , अंधकासुर वध एवं नटराज प्रतिमाएं हैं ।
बिलासपुर संग्रहालय में भी इस काल की कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमाएं को संरक्षित किया गया है जिनमें मल्हार की डिंडेश्वरी के रूप में विख्यात राज्य महर्षि, रतनपुर का कंठी देवल किला प्रवेश द्वार , रतनपुर के निकट पुलिया से जुड़ी प्रतिमाएं , महा मद पुर की महामाया , आरंग की जैन तीर्थ कारों की प्रतिमाएं विशेष उल्लेखनीय है । इसी युग में सरगुजा जिले के त्रिपुरी दूरियों से संबंधित प्रमुख कला केंद्र डीपाडीह की 2 प्रतिमाएं जैसे त्रिविक्रम एवं पार्वती रायपुर संग्रहालय में संरक्षित है । यहां से प्राप्त कार्तिकेय की प्रतिमा शिल्प की दृष्टि से उच्च कोटि की है ।
कलचूरियों (कलचुरी कालीन मूर्तिकला || Kalchuri Kalin Murtikala) के समकालीन फनी नागवंशी शासकों का एक केंद्र कवर्धा के निकट भोरमदेव में स्थित था । यहां से भी मूर्तिकला के कुछ श्रेष्ठ उदाहरण उपलब्ध है , यहां उमामाहेश्वर प्रतिमा, काल भैरव की बैठी हुई प्रतिमा, दो भुजाओं की सूर्य तथा 10 भुजी गजानन 10 दांत दांत वाले गजानन की मूर्ति प्राप्त हुए हैं।
बस्तर के नागवंशी यों के काल के महत्वपूर्ण कला केंद्र दंतेवाड़ा, बारसूर, भैरमगढ़ आदि में स्थिति थे। इनमें से बारसूर की गणेश प्रतिमा अपने आकार के कारण अत्यंत प्रसिद्ध है, जो 1060 ईसवी में नागराज जगदेव भूषण की महामंडलेश्वर चंद्रादित्य के द्वारा बनवाए चंद्रदीतेश्वर मंदिर में लगी अनेक मूर्तियां में से एक है । 1000 वर्ष पूर्व की यह विशालकाय गणेश प्रतिमा छत्तीसगढ़ के पुरातत्व की दृष्टि से अद्भुत है ।
संरक्षित – भैरमगढ़ में हरिहर हिरण्यगर्भ पितामह की एक सर्वश्रेष्ठ प्रतिमा स्थित है । जगदलपुर में स्थित संग्रहालय में इस काल की मूर्तियां सुरक्षित है। काकतीयों की आराध्य देवी दंतेश्वरी देवी के रूप में प्रसिद्ध महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति संपूर्ण बस्तर की आराध्य देवी है जिसका निर्माण चौदहवीं शताब्दी के आरंभ में अन्नम देव ने कराया था ।
4 . गोंड कालीन मूर्तिकला शिल्प अर्थात 1500 साल से 1700 साल तक

इसके पश्चात छत्तीसगढ़ की कला में कमी दिखाई पड़ता है किंतु कला गतिविधियां 17 बी से 18 बी शताब्दी तक चलती रही जिन्हें सामान्यतः गुण कालीन कलाकृतियां के नाम से जाना जाता है । इसके अंतर्गत समानता गोंड सरदारों अथवा सिपाहियों की प्रतिमाएं मिलती है । लगभग इसी कार्य के तीन बंदरों की मूर्तियां रायपुर संग्रहालय में संग्रहित है, गांधीजी के तीन बंदर – को प्रदर्शित कर रही है यह प्रतिमाएं 16 से 17 वी शताब्दी ईस्वी की है जो राजनांदगांव से प्राप्त हुई है ।
आरंग से प्राप्त बहुमूल्य रत्न स्फटिक की तीन प्रतिमाएं भी प्राप्त हुई है , किंतु इसका स्पष्ट काले निर्धारित नहीं हो सका है । इसमें 2 पार्श्वनाथ की तथा एक शीतल नाथ की है । वर्तमान में यह प्रतिमाएं दिगंबर जैन मंदिर, रायपुर में स्थित है। इनका काल निर्धारण करना कठिन कार्य है फिर भी वैज्ञानिकों और विद्वानों द्वारा पार्श्वनाथ की एक प्रतिमा 7वी से आठवीं शताब्दी ईस्वी और दूसरी मूर्ति 11 से 12 वीं शताब्दी एवं शीतलनाथ की 14 वी से 15 वी शताब्दी की स्वीकृत की गई है।