कलचुरी कालीन छत्तीसगढ़ की सामाजिक एवं आर्थिक दशा का वर्णन | कलचुरी कालीन शासन व्यवस्था

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महाकौशल क्षेत्र में अपना शासन स्थापित करने के बाद में कलचुरी ने जो शासन व्यवस्था की थी आरंभ में छत्तीसगढ़ शाखा में भी उसी के अनुसार शासन स्थापित हुई किंतु बाद में त्रिपुरी से पृथक होने के बाद रतनपुर के शासकों ने स्थानीय अवश्यकtaओं के अनुसार शासन व्यवस्था शासन व्यवस्था विकसित की।  कल्याण सहाय के समय 16 वीं सदी के मध्य लेखा पुस्तिका को आधार मानकर श्री chisam ने 1868 ईस्वी में कलचुरी शासन प्रबंध पर एक लेख लिखा है जिससे कलचुरी कालीन प्रशासनिक एवं राजस्व व्यवस्था पर जानकारी प्राप्त होती है

कलचुरी कालीन शासन व्यवस्था || chhattisgarh kalchuri shasan vyavastha 

प्रशासनिक व्यवस्था – कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ में राजकीय प्रशासनिक तंत्र पंचमी तिथि कलचुरी राजा धर्म पालक प्रजा ओं के प्रति बहुत ही ज्यादा उत्साहित एवं ज्ञानी राजा थे एवं लोक हितकारी शासक थे। शासन प्रबंध हेतु राजा मंत्रियों व अन्य अधिकारियों की नियुक्त करता था प्राप्त कलचुरी अभिलेख ज्ञात होता है कि राज्य अनेक प्रशासनिक इकाइयों राष्ट्र ( संभाग), विषय  (जिला) जनपद ( वर्तमान तहसील ) , मंडल (वर्तमान खंड की तरह विभक्त था ) .

विषय का उल्लेख द्वितीय के शिवरीनारायण ताम्रपत्र जिक्र हुआ है, देश का उल्लेख पृथ्वी द्वितीय के शिलालेख में 7 देशों (जनपदों) मध्य देश , वडहर , भट्टविल ,  ब्रमरवद , ककरय , तमनाल , व् विठ्टर देश का तथा मंडलो का उल्लेख जैसे अपर मंडल , कोमो , jaipur , तलहरी , मध्य व् सामंत मंडल आदि विब्भिन्न कलचुरी के अभी लेख मिले है , किन्तु इस सभी प्रशासनिक नियंत्रण में से कलचुरियो के प्रसंनिक नियत्रण के बारे में नहीं कहा जा सकता है । मंडल का अधिकारी मांडलिक पता उसका सबसे बड़ा अधिकारी महामंडलेश्वर जो 100000 ग्रामों का स्वामी था ।

कलचुरी कालीन छत्तीसगढ़ की सामाजिक एवं आर्थिक दशा का वर्णन
कलचुरी कालीन छत्तीसगढ़ की सामाजिक एवं आर्थिक दशा का वर्णन

कलचुरी कालीन शासन व्यवस्था का विश्लेषण करने से ज्ञात होता है कि संपूर्ण छत्तीसगढ़ का प्रशासनिक सुविधा के लिए कलचुरियो ने 84 ग्रामों का एक गण होता था तथा

कलचुरी कालीन शासन व्यवस्था में प्रशासनिक सुविधा के लिए  कलचुरीने 84 ग्रामों को मिलाकर के 1 गढ बनाया था । और गढो को तालुको या बरहो जिसमें 12 ग्राम के समूह में विभाजित था। शासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी।  12 गांव के तालुको को तालुका अधिपति कहते थे तथा 84 गढ़ो के अधिपति दीवान कहते थे। और ग्राम प्रमुख को गोटिया कहा जाता था ।

कल्चुरी काल में प्रत्येक अधिकारी अपने अधिकार क्षेत्र में स्वतंत्र पूर्वक काम करते थे।
राजा की अधिकारीगण – कलचुरी में राज्य का आदि के काम के संचालन हेतु राजा को योग्य एवं विश्वनीय सलाहकारों एवं अधिकारों की आवश्यकता होती थी । इन अधिकारियों की नियुक्ति उनके योग्यता के अनुसार होती थी किंतु छोटे पदों लेखक ताम्रपट लिखने वाले को उनके वंशानुगत नियुक्ति होती थी।

1 गढ – 84 ग्रामों
12 ग्राम – तालुको या बरहो
12 गांव तालुको –  अधिपति
84 गढ़ो अधिपति – दीवान
ग्राम प्रमुख – गोटिया

मंत्रिमंडल – कलचुरी काल में मंत्रिमंडल युवराज, महामंत्री ,महात्माय, महासंधि विग्रह, महा पुरोहित ( राजगुरु) , जमाबंदी का मंत्री (राजस्व मंत्री) , महाप्रतिहार महासमुंद और महाप्रभातृ आदि प्रमुख थे।

अधिकारी- कलचुरी काल में अमित एवं विभिन्न विभागों के अध्यक्ष प्रमुख होते थे। महा अध्यक्ष नामक अधिकारी सचिवालय का मुख्य अधिकारी होता था। महा सेनापति अथवा सेना अध्यक्ष सेना प्रशासन का प्रमुख अधिकारी होता था। दंडपाषिकस का अपराध दंड देने वाले विभाग का प्रमुख होते थे, । राजकाज के भंडारण के लिए महा भंडारी। जिले के रक्षा करने के लिए महाकोट्टपाल आदि विभाग अध्यक्ष छोटे थे।

राज्य कर्मचारी – ताम्रपत्र में चाट , भट, पिशुन , वेद्रक आदि कर्मचारियों के नाम उल्लेखित किया हुआ मिलता है जो राज्य के ग्राम में दौरा करने का काम करते थे ।

राजस्व प्रबंध – कलचुरी काल में राजस्व प्रबंधन का प्रमुख अधिकारी महाप्रमात्रृ होता था जो भूमि की माप के अनुसार उसे लगान का निर्धारित करता था।

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आय के स्रोत – कलचुरी काल मे आय की अनेक उत्पादक थे जैसे नमक काकर, खान का कर, वन चारागाह, बाग बगीचा, आम महुआ, आदि पर लगने वाले कर प्रमुखराज की आय के स्रोत थे ।

आय के उत्पादन पर निर्यात कर और आय के बाहर जाने पर आयात कर लगता था जिससे शासन को फायदा होता था। नदी के पार करने तथा नाम आदि पर भी कलचुरी काल में कर लगाया जाता था इसके अतिरिक्त मंडी में बिक्री के लिए आए हुए सब्जियां सामग्रियों पर भी कर लेते थे।

हाथी घोड़े और कई सारे जानवर पर भी कर लगाया जाता था प्रत्येक घोड़े के लिए चांदी का छोटा सिक्का हाथी के लिए 4 पौर कर लगाया जाता था ।

मंडी में सब्जी बेचने के लिए सबसे पहले योगा नामक परगना परमिट लेना पड़ता था जो दिन भर के लिए होता था और 2 युगाओं का एक पौर दिया जाता था ।

न्याय व्यवस्था – कलचुरी काल में ना अवस्था से संबंधित कोई भी शिलालेख प्राप्त नहीं होती हैं। दांडिक नामक एक अधिकारी न्याय का अधिकारी होता था।

धर्म विभाग – कलचुरी के शासनकाल में धर्म का विभाग पुरोहित होता था । दान पत्र में इन अधिकारी का उल्लेख मिलता है। दान पत्रों का लेखा-जोखा वह हिसाब रखने के लिए धरम लेखनी नामक अधिकारी होते थे।

युद्ध एवं प्रतिरक्षा प्रबंध – कलचुरी काल में सर्वोच्च सेना अधिपति राजा होता था जबकि सेना का सर्वोच्च अधिकारी सेनापति या साधनीक या महा सेनापति कहलाता था।

अशोक सेना का प्रमुख महाश्वसाधनिक कहलाता था , हस्त सेना के प्रमुख महा पीलुपति कल आते थे।
कलचुरी काल में बाह्य शत्रुओं के रक्षा के लिए बड़े-बड़े नगर दुर्ग का निर्माण किया गया था जैसे तुम्मान ,रतनपुर, मल्लालपतन , जाजल्लपूर आदि ।

पुलिस प्रबंध – कलचुरी काल में एवं शांति व्यवस्था बनाए रखने हेतु दंड पाशिक , चोरों को पकड़ने वाला अधिकारी, दूष्ट साधक , संपत्ति रक्षा करने के लिए नगरों में सैनिक नियुक्त होते थे।

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पर राष्ट्र प्रबंध – विदेश विभाग का नाम संधिविग्रहधिकारी था। युद्ध विभाग के लिए प्रमुख अधिकारी महासंधिविग्रहक होता था ।

यातायात प्रबंध – यातायात के अधिकारी गमागिक चलाता था जो गांव अथवा नगर पर नजर रखता था एवं अवैध सामग्री हथियारों को जप्त करता था।

स्थानीय प्रशासन – स्थानी कामकाज के संचालन हेतु नगरों और गांव में पंचकूल नामक संस्था होती थी । पंचकूला में 5 सदस्य होते थे और कहीं कहीं इनकी संख्या 10 तब भी होती थी।

गांव के स्थानीय कामकाज के लिए प्रत्येक विभाग के लिए एक पंचकोल होती थी जिसकी व्यवस्था और निर्णय के देखरेख के लिए अच्छा अधिकारी होते थे जिनमें मुख्य पुलिस अधिकारी, पटेल,  तहसीलदार, लेखक, छोटे-मोटे करो को लेने वाले , और सिपाही आदि पंचकूल की सदस्य को देखरेख करते थे ।

नगर के प्रमुख अधिकारी को पूरप्रधान ग्राम प्रमुख को ग्रामकुट या ग्रामभोगिक तथा कर की वसूली करने वाले को कोल्किक , तथा जुर्माना की वसूली करने वाले को दंडपाशविक कहां जाता था ।

गांव जमीन आदि की कर वसूली का अधिकारी 5 सदस्य की एक कमेटी को था इस कमेटी को पंच पुल भी कहा जाता था जो गांव में न्याय करने का भी अधिकार था।

कल्चुरी काल में जुर्माने की राशि निर्धारित की गई थी ताकि मनमानी ना हो सके।
यदि पंचकूल के निर्णय के विरुद्ध अपील सुनने का अधिकार सिर्फ राजा को था और पंचकूल के सभी सदस्यों को महत्तर कहते थे । इन महत्तर का चुनाव नगर वा गांव की जनता द्वारा होता था। इसका मुख्य सदस्य महत्तम कहलाता था।

ग्राम प्रशासन न्याय पूर्वक चला करता था उस समय ग्रामदान की परंपरा के बावजूद ग्राम पंचायत और ग्रामीण मुखियाओं की स्थिति बनी रहे शायद इसी कारण से भी कलचुरी लंबे समय तक शांतिपूर्ण व्यवस्था के साथ शासन करते रहे। चौधरी सदी में कलचुरी सम राज्य के विभाजन के बाद भी दोनों सखाव रतनपुर और रायपुर के शासन व्यवस्था में कोई परिवर्तन दिखाई नहीं दी।

कुछ वर्षों के बाद में परवर्ती कलचुरी शासकों के लालच से पदाधिकारी स्वार्थ है और पद के लोभी हो गए और राज्य का धीरे-धीरे पतन होना प्रारंभ हो गया और इस प्रकार से लालच से ही शासन के खिलाफ असंतोष पनपने लगा और कल चुरियों की केंद्रीय शक्ति कमजोर होती चली गई। जिसका लाभ मराठों ने उठाया।

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सामाजिक स्थिति – कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ में नागरिकों का जीवन उच्च कोटि का था इस समय तक का वर्ण व्यवस्था को स्थान प्राप्त हो चुका था किंतु वह कठोर नहीं था उदाहरण के लिए कलचुरीयों का सामंत वल्लभराज वैश्य था।
प्राप्त कलचुरी अभिलेख में ब्राह्मण, क्षत्रीय एवं वैश्य का जिक्र मिलता है किंतु शूद्र का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता है।

ब्राह्मण वेद अध्ययन पूजा पाठ के साथ राजकाज के कामों में भी भाग लेते थे। और गांव दान केवल उन्हीं ब्राह्मणों को दिया जाता था जो कुल और ज्ञान में श्रेष्ठ होते थे। ब्राह्मणों की तरह क्षत्रिय भी सम्माननीय थे जो राज रक्षा करते और प्रशासन में उच्च पदों पर नियुक्त किए जाते थे राजा छत्रिय होते थे।
वैश्य व्यापार व्यवसाय के प्रशासन के काम करते थे ।

वैश्य के बाद में कार्यस्थ का नाम आता है जो शिल्पकला को जानते थे। कलचुरी काल में छत्तीसगढ़ समाज में स्त्रियों को उचित स्थान प्राप्त था वह कामकाज में भाग रहते थे उदाहरण ज्यादा लदेव प्रथम दे अपनी माता के कहने पर बस्तर के राजा सोमेश्वर देव को कैद मुक्त कर दिया था किंतु इस समय बहु पत्नी तथा सती प्रथा जैसी कुप्रथा एवी मौजूद थी।

छत्तीसगढ़ के सामाजिक संस्कृति का इतिहास का मिलाजुला इतिहास है इस क्षेत्र में आदिवासियों और और मैदानी क्षेत्र से आने जाने वाले इस मिली-जुली सभ्यता है। जहां अनेक विभिन्न जातियों में अपनी संस्कृति का अलग-अलग संस्कृति का विकास हुआ और एक दूसरे के निकट आई जिससे परस्पर विवाह संबंध और सांस्कृतिक संबंध स्थापित हुए।

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आर्थिक स्थिति  – छत्तीसगढ़ के कलचुरी कालीन प्रशासनिक व्यवस्था की आर्थिक स्थिति का बहुत ज्यादा विकास हुआ । उनके शासन काल के समय कृषि, वनोपज, खनिज आदि आय के प्रमुख साधन थे। भू राजस्व प्रणाली , कर प्रशासन के आर्थिक अधिकार, तथा सिक्कों का प्रचलन वस्तु विनिमय के द्वारा यहां के जनजीवन को प्रभावित कर रही थी।

कुटीर उद्योग वाणिज्य कार्य एवं यातायात के साधनों का विकास भी कलचूरियों के शासन काल मैं होता रहा। इस काल में नगरों की अपेक्षा ग्रामों पर अधिक ध्यान दिया गया जिससे इनकी संख्या अधिक थी किंतु नए-नए नगरों का भी निर्माण हो रहा था जैसे रतनपुर, रायपुर, मलालपत्तन , बिलासपुर, जांजगीर, तेजल्लपुर , आदि शहर बसाय गई ।

उस समय विभिन्न प्रकार के वजन व माप प्रचलित थे। राजा की प्रमुख आय का साधन भूमि कर था इस तरह प्राप्त अभिलेख से स्पष्ट होता है कि कलचुरी के शासनकाल में 36 गढ़ो की आरती की स्थिति सुख व समृद्धि। कलचुरीकाल मे खाने पीने की सुखद व्यवस्था होने के कारण मानव आलसी था

धार्मिक स्थिति  – छत्तीसगढ़ के कलचुरी धर्मनिरपेक्ष शासक थे इन्होंने अपने राज दरबार शैव धर्म के उपासक थे। इनके काल में वैष्णव जैन एवं बौद्ध धर्म का कोई संरक्षण नहीं दिया गया लेकिन इनके बावजूद भी इन धर्मों ने कलचुरी काल में आगे बढ़ा है । कलचुरी शैव धर्म के उपासक होने के बाद भी इन्होंने अपने राज्य काल में वैष्णव मंदिर, जहांगीर का विष्णु मंदिर, खल्लवाटिका का नारायण मंदिर , रतनपुर में प्राप्त लक्ष्मी नारायण की मूर्ति, शिवरीनारायण का विष्णु मंदिर आदि का भी निर्माण।

शिव और विष्णु के अलावा पार्वती, एकवीरा, गणपति थे ke deva लाए भी रतनपुर बढ़द , दुर्ग, पट्टपक , विकर्णपुर , आदि स्थानों में बनाए गए हैं।

इसके अलावा शक्ति पूजा के लिए दुर्गा , महामाया, महिषासुरमर्दनी , काली आधी शक्तियों के मंदिर भी बनाए गए हैं।
छत्तीसगढ़ में वैसे तो जैन धर्म के संबंध में कलचुरी काल में जानकारी नहीं मिलती है किंतु आरंग, सिरपुर, मल्हार, धनपुर, रतनपुर आदि में प्राप्त मध्ययुग के जैन तीर्थंकरों की मूर्तियां इस काल में जैन धर्म के प्रचार को स्पष्ट करती हैं।
इसी के शासनकाल में छठी शताब्दी में बौद्ध धर्म छत्तीसगढ़ में स्थापित था। राजस्थानी सिरपुर इसका प्रमुख केंद्र था लेकिन जैसे ही कलचुरी शासन काल आया धीरे-धीरे बौद्ध धर्म के प्रचार पतन की ओर अग्रसर करने लगा।

कलचुरी काल में राजिम के समीप चंपारण नामक स्थान पर 1593 ईस्वी के आसपास महाप्रभु वल्लभाचार्य का जन्म स्थली है जिन्होंने सुध्दाद्वैतवाद अथवा पुष्टिमार्ग की संस्था की स्थापना की।

रामानंद ने वैष्णव भक्ति को दक्षिण से उत्तर भारत में फैलाया जिसका प्रभाव छत्तीसगढ़ में भी हुआ और यहां रामानंदीमठों की स्थापना हुई। और इसी परंपरा से जुड़े हुए वर्तमान में रायपुर का दूधाधारी मठ भी स्थापित हुआ।
इस प्रकार से कलचुरी के शासनकाल में शैवधर्म के साथ-साथ वैष्णव धर्म भी प्रभावी रूप से विद्यमान रहा और अन्य धर्म भी इसके साथ स्वतंत्र रूप से चलते रहे।

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कलचुरी कालीन शिक्षा साहित्य एवं भाषा – कलचुरी काल में साहित्य का अत्यंत विकास हुआ। इन के शासनकाल में नारायण , अल्हन , कीर्तिधर , धर्मराज, वत्सराज , मागे , सुरगन , रत्न सिंह , कुमारपाल  , त्रिभुवन पाल , देवपही , नरसिंह, और दामोदर मिश्र जैसे कवियों के नाम हमें कलचुरी लेख पर प्राप्त हुए हैं।

कलचुरी काल में संस्कृत भाषा के साथ-साथ प्राकृत भाषा के कवियों को कलचुरी दरबार में राज्य आश्रय प्राप्त थी।
कलचुरी काल में शिक्षा का बहुत ही ज्यादा प्रचार प्रसार हुआ यहां पाठ शालाओं राज्य की अनुदान प्राप्त था। कलचुरी काल में गुरु आश्रम की परंपरा विद्यमान थी।

कलचुरी काल की साहित्य बाबू रेवाराम द्वारा लिखित ग्रंथ’ तवारीक ए हैहयवंशीय राजाओं की’ की ग्रंथ लिखी गई। इसके अलावा शिवदत्त शास्त्री ने रतनपुर आख्यान लिखा है रतनपुर आख्यान में शिवदत्त शास्त्री ने छत्तीसगढ़ के जमीदारों का इतिहास के बारे में लिखा है । इसके अलावा शिवदत्त शास्त्री ने इतिहास समुच्चय पुस्तक की रचना भी की है जिसमें उन्होंने रतनपुर के इतिहास के संबंध में जानकारी दी है।

इस काल में साहित्यकारों की अपेक्षा प्रशस्तिकार कवि अधिक के थे। प्रशस्ति कार कवि ब्राह्मण और कार्यस्थ थे ।

कलचुरी काल में राजकीय भाषा संस्कृत था लेकिन जनसामान्य की भाषा छत्तीसगढ़ी बोली का प्रसार होता था। इस कारण से यहां प्रतीक इतिहास एक प्रकार से अधिकार में था।

बाबू रेवाराम (1850-1930) – बाबू रेवाराम ब्रिटिश काल के थे लेकिन उनकी जितनी भी कृतियां हैं वह कलचुरी कालीन से पूर्ण रूप से प्रभावी है उन्होंने लगभग 13 ग्रंथों की रचना के दिन में प्रमुख है रामायण दीपिका, विक्रम विलास (सिहासन बत्तीसी का पग्ध में अनुवाद) , गंगा लहरी, ब्राह्मण स्त्रोत, गीता माधव (महाकाव्य), नर्मदा कंटन , दोहावली, रत्ना परीक्षा, माता के भजन, कृष्ण लीला के भजन, लोक लावण्या वृतांत, रतनपुर का इतिहास, रामाश्रमेघ आदि उनकी कृतियां हैं। रेवाराम हिंदी संस्कृत उर्दू के विद्वान थे जबकि छत्तीसगढ़ी में निपुण थे । छत्तीसगढ़ी भाषा में भी उनकी एक कृति हैं किंतु वर्तमान में वह उपलब्ध है

कलचुरी काल के प्रसिद्ध कवि गोपाल चंद्र मिश्र का नाम उल्लेखित है .  गोपाल चंद्र मिश्र हिंदी काव्य की महत्वपूर्ण कवि है । उन्हें रतनपुर राज्य में राज्य सिंह देव (1689-1712ई) के दरबार में राज्य आश्रय प्राप्त था। इनके ग्रंथों में प्रमुख है खूब तमाशा, जमैनी , अश्वमेघ, सुदामा चरित, चिंतामणि, रामप्रताप उनके अनेक ग्रंथ अप्रकाशित भी हैं।

जिनके कारण से इन अप्रकाशित ग्रंथों का मूल्यांकन नहीं हो सका है उनके इस कृतित्व की उत्कृष्टा को देखते हुए उन्हें महाकवि की संज्ञा दी जानी चाहिए। खूब तमाशा इनके पांडित्य का एक अच्छा उदाहरण है खूब तमाशा की रचना 1746 ईस्वी में की थी जिनमें उन्होंने इस अंचल को छत्तीसगढ़ संबोधित किया हैजो उपलब्ध साक्ष्यों के मदन छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग अधिकांशतः माना जाता है ।

प्राप्त अभिलेखों के आधार पर इस बात से आंकलन लगाया जा सकता है कि कलचुरी साहित्य के प्रेमी थे इनकी मूल शाखा त्रिपुरी में राजशेखर एवं शशिधर जैसे विद्वानों को संरक्षण प्रदान था राजपूत कालीन राजशेखर ने युवराज देव प्रथम (900 ईसवी के आसपास) के राज दरबार में रहते हुए ही अपने दो प्रसिद्ध ग्रंथ काव्यमीमांसा एवं विद्धसालजीका की रचना की।

स्थापत्य एवं शिल्प – भारती कला के इतिहास में कलचुरी कला का अपना एक विशिष्ट स्थान है । लेकिन पुरातत्ववेदोंओ के अनुसार इनका योगदान नगर ने माना है जिसके कारण से यहां की स्थापत्य कला एवं शिल्प कला अंधकार में चला गया। कलचुरियों ने अनेक मंदिर, धर्मशाला, अध्ययन शालाओं, मठ आदि का निर्माण कराया किंतु अवशेष के रूप में केवल मंदिर ताम्रपत्र एवं उसके सिक्के ही वर्तमान में प्राप्त होते हैं।

कलचुरी स्थापत्य कला की अपनी एक विशिष्ट शैली थी जिसका काल 1000 से 1400ई तक निर्धारित किया गया है । परवर्ती कलचुरी काल को 1400 से 1700 वी के मध्य रखा गया है। परवर्ती काल के और शेष कम प्राप्त होते हैं एवं कला का हाश भी दिखाई पड़ता है।

कलचुरी फील्ड में मंदिर के द्वारों पर गजलक्ष्मी अथवा शिव की मूर्ति पाई जाती हैं गजलक्ष्मी कलचुरी वंश की कुलदेवी थी और वे शैव उपासक थे। प्राप्त कल्चुरी के सिक्कों पर लक्ष्मी देवी अंकित किया गया है तथा प्राप्त ताम्र लेखों में आरंभ में ओम नमः शिवाय से शुरू होती है।

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