यह उस समय की बात है जब छत्तीसगढ़ में अंग्रेजो से शासन हुआ करता था । तब छत्तीसगढ़ में अंग्रेजो के विरुद्ध लड़ाई , आंदोलन करने के लिए बहुत ही कम लोग आगे आते थे । यदि कोई भी छत्तीसगढ़ के क्रांत्रिकारी अपनी आवाज को उठाने के लिए आगे आते थे तो उन्हें अंग्रेज उनके मुँह को बंद कर देते थे या फिर उनको और किसी का साथ न मिलने के कारण वह कूद पीछे हट जाया करते थे ।
लेकिन महात्मा गाँधी के छत्तीसगढ़ आगमन के बाद से छत्तीसगढ़ के विभिन्न कोनो से chhattisgarh ke swatantrata senani का उदय होने लगा । जो अपने अपने क्षेत्रों में अंग्रेजो से लोहा लेते रहे । आज हम कुछ ऐसे ही छत्तीगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी के बारे में जानने वाले है जिनका हमें बड़े गर्व के साथ में लेना ही चाहिए ।
छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी || Chhattisgarh Ke Swatantrata Senani LIST
1 . वीर नारायण सिंह (VEER NARAYAN SINGH)
2 . वीर हनुमान सिंह ( VEER HANUMAN SINGH)
3 . क्रन्तिकारी सुरेन्द्रसाय ( KRANTIKARI SURENDRASAAY)
4 . पंडित रविशंकर शुक्ल (PT RAVISHNAKAR SHUKLA)
5 . ठाकुर प्यारेलाल (THAKUR PYARELAL)
6 . गुण्डाधुर (GUNDADHUR)
7 . पंडित केदारनाथ (PT KEDARNATH)
8 . डाक्टर ईश्वरीय राघवेंद्र राव ( DC ISVARIY RAGHVENDRA RAAV )
9 . बैरिस्टर छेदीलाल ( BARISTER CHEDILAL)
10 . घनस्याम सिंह गुप्त (GHANSYAM SIGNH GUPT)
11 . मुंशी अब्दुल रउफ मेहवी (MUNSHI ABDUL RAUF MEHVEE)
12 . पंडित वामन राव लाखे (PT VAMAN RAV LAAKHE)
13 . यति यतन लाल ( YATI YATAN LAL)
14 . क्रन्तिकारी भारतीय (KRANTIKARI BHARTIY)
15 . डाक्टर खूबचंद बघेल ( DC KHUBCHAND BAGHEL)
16 डाक्टर राधाबाई ( DC RADHA BAI)
छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के नाम के साथ परिचय
1 . वीर नारायण सिंह (VEER NARAYAN SINGH)
छत्तीसगढ़ की माटी और महानदी की घाटी के वनाचल सोनासखान के नारायण सिंह बिंझवार की शौ्य गाथा इस अचल के लिये सदैव अविस्मरणीय रहेगी जिन्होंने Chhattisgarh Ke Swatantrata Senani के रूप में छत्तीसगढ़ के पहले वीर शहीद को प्राप्त हुए थे। शंभूदयाल गुरू के शब्दों में अंग्रजां के विरूद्ध घृणा की चिनगारियों से छत्तीसगढ़
भी अछता नहीं रह सका । सोनाखान की जर्मांदारी इसका प्रमुख केंद्र था।
सोनाखान के जमींदार ने सन 1857 के बहुत पहले ही विद्राह का परचम फ्हराया था। जब अंग्रेज छत्तीसगढ़ पर अपना कब्जा मजबूत करने में लगे थे, तब सोनाखान के जर्मीदार रामराय एवं उनके पिता ने मोर्चा खोल रखा था। “”
नागपुर स्थित ब्रिटिश रेजी्डेट आर. जेनकिन्स ने द रिपर्ट ऑन द नागपूर टैरिटीज में अंकित किया है कि राम राय ऑर उनके पिता अंग्रेजों से किसी तरह का समझौता नहीं करना चाहते थे। वे ब्रिटिश क्षेत्र में लगातार हमला करते थे। छत्तीसगढ़ के विभिन्न क्षेत्र के लोगों के लिये सोनाखान एक सुरक्षित शरणस्थली बना हुआ था। बाद में अंग्रेजों
ने राम राय से समझौता कर लिया था और शाति बनाये रखने के लिए उन्हें खालसा तालूका देना पड़ा था।
सन् 1856 में जब सूखा पड़ा, जिससे सोनाखान जमीदारी के लोग दाने दाने को तरसने लगे । एक गाँव में माखन नामक व्यापारी के पास अन्न के विशाल भण्डार थे। नारायण सिंह के लिये यह असह्य था कि जनता भूखों मरती रहे और व्यापारी अनाज अपने भण्डारों में जमा करते रहें। इस स्थिति में माखन बनिया (व्यापारी) से किसानों ने उधार में अनाज की मोग की, माखन द्वारा अनाज नहीं देने पर उन्होंने लोकप्रिय जमीदार नारायण सिंह के नेतृत्व में माखन वनिया के भण्डारों के ताले तोड़ दिये। नारायण सिंह ने गोदामों में उतना ही अनाज निकाला, जितना भूख से पीड़ित किसानों के लिये आवश्यक
था। नारायण सिंह चरित्रवान और ईमानदार व्यक्ति थे।
उन्होंने अपनी इस कारंवाई की सूचना तत्काल रायपुर के डिप्टी कलेक्टर को दे दी। माखन की शिकायत पर रायपुर के डिप्टी कमिश्नर इलियट ने सोनाखन के जमीदार नारायण सिंह के विरूद्धर वारन्ट जारी कर दिया। नारायण सिंह के उपस्थित न रहने पर उनको तीर्थयात्रा के मार्ग सम्बलपुर में बन्दी बना लिया। सोनाखान के जर्मीदार का पीछ करने के लिए मुल्की घुड़सवारी की एक टकड़ी भेज दी गई थी। थोड़ी बहुत परेशानियां के बाद संबलपुर में।
उसे 24 अक्टूबर 1856 को गिरतार कर लिया गया। और उन्हें 10 दिसम्बर 1857 को वीर नारायण को फांसी की सजा दी गई ।
2 . वीर हनुमान सिंह ( VEER HANUMAN SINGH)
दिसंबर 1857 को अमर शहीद वीर नारायण सिंह की शहादत ने मैगजीन मान सिंह को अंग्रेजी के खिलाफऋ्ांति के लिए और अधिक अभिप्रेरिति किया । फलस्वरूप 18 जनवरी 1858 की रात में उन्होंने सशस्त्र हमला बोल दिया।
आठ बजे छावनी के एक कक्ष में बैठे थे तथा अपने अनुचर को अभी-अभी कहीं भेजे शी पैदल सेना की तृतीय रेजीरमेंट के सार्जैट मेजर सिडबेल रात्रि के लगभग अचानक मेगजीन लस्कर हनुमान सिंह ने दो गोलंदाजों सहित कक्ष में सशस्त्र
प्रवेश किया जबकि गोलदाज द्वार की सुरक्षा पर सतर्क रहे हनुमान सिंह ने तलवार से मेजर पर आत्मण कर मृतप्राय सीमा तक घायल कर दिया,
थोड़ी देर पक्षात ही सर्जेट मेजर की मृत्यु हो गई। यह तीनो व्यक्ति छवनी पहुँचे और चिल्लाकर अन्य व्यक्तियों इस विद्रोह में सम्मिलित होने हेतु आमेत्रित किया। तोपखाना का हवलदार तथा प्रेवश उसके सिपाहियों ने तोपों को अपने कब्जे में कर उन्हें आक्रमण हेतु सुसज्जित किया, फिर भी यह विद्रोह अल्पजीवीं सिद् हुआ। दुर्बल संगठन के कारण इसे असफ्लता का मंह देखना पड़ा। छः घटों के कड़ मुकाबले के पश्चात् विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण कर दिया।
लेटिनेंट द्वय रे वाट तथा स्मिथ छावनी में थे और जैसे ही उन्हें विद्रोह के संबंध में ज्ञात हुआ उन्होंने अपने व्यक्तियों को बुला लिया। तोपखाना का हवलदार चौदह बाहरी व्यक्ति और तृतीय रेजिमेंट के दो सिपाही कैदी बनाए गए, परंतु किसी प्रकार छत्तीगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी लस्कर हनुमान सिंह भाग निकले। रायपुर की जनता और सैनिकों की उपस्थिति में संपूर्ण बंदी राजद्रोह तथा बगावत के अपराध में 22 जनवरी 1858 को खुलेआम फांसी की सजा से दण्डित किए गए । ब्रितानी हुकुमत के दौरान देशभक्ति एक गुनाह था।
3 . क्रन्तिकारी सुरेन्द्रसाय ( KRANTIKARI SURENDRASAAY)
अशोक शुक्ल के शब्दों में -“1857 के विप्लव में संबलप्ुर के साय परिवार की भमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय रही। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अतिम शहीद सुरेन्द्र साय ही थे।”
सुरेंद्रसाय का जीवन महान् रोमांचक और तूफानो था, किन्तु वास्तव में यदि भारत को कालान्तर में आजादी न मिलती तो सुरेंद्रसाय एक आतंकवादी, अत्याचारी डाकू-लूटेरे न जाने किस-किस संज्ञा से संबोधित किये जाते ? उनका अद्वितीरय संबलपुर जैसे अविकसित, अशिक्षित और एकाकी अंचल (जो वन प्रान्तर्ों से घिरा हुआ है) में व्यतीत हुआ। आजादी की मशाल को वह ज्वाला जो उसने प्रज्जवलित की वह संपूर्ण अंचल में ही नहीं प्रत्युत पूरे देश में अपना विशिष्ट महत्व रखती है।
संबलपुर जिला पूर्व में छत्तीसगढ़ के ही अंतर्गत था। इसी जिले के “रिवडा” ग्राम सन् 1809 में महान योद्धा सुरैंद्रसाय का जन्म क्षत्रीय राजवंश में हुआ था। उनके पिता का नाम धर्मसिंह था। सुरेंद्रसाय छः भाई थे – उदतसाय, उज्जवल साय, छबिल साय, जाज्जल्य साय और मेदिनी साय । सुरैंद्रसाय के एक पुत्र और एक पुत्री थी। पुत्र का नाम मित्रभान् था। सुरेंद्रसाय ऊँचे डील- डोल के भव्य व्यक्तित्व के पुरूष थे। वे बचपन से ही घुड़सवारी और शस्त्र चलाने में निप्ण थे।
अनिरूद्ध सिंह ठाकुर के अनुसार ब्रितानी हुकूमत की हड़पनीति की शिकार संबलपुर रियासत भी हुआ। सन् 1827 में अंग्रेजों ने तत्कालीन राजा महाराज साय की मृत्यु के बाद उसकी विधवा मोहनकूमारी को सिंहासनासीन किया . मोहनकूमारी शासन चलाने में असमर्थ सिद्ध हुई। इस स्थिति में अग्रेजों ने अपने एक पिट्टू नारायण सिंह को गह्दी पर बिठा दिया, जो कि अंग्रेजों की स्वाथ्थपूर्ण नीति की परिचायक थी ।
28 फरवरी 1884 को 1 बजे दोपहर असीरगढ़ के दुर्ग में स्वाभाविक मृत्य को प्राप्त हुए ।
4 . पंडित रविशंकर शुक्ल (PT RAVISHNAKAR SHUKLA)
छत्तीगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी में जिन महापुरूषों का नाम आदर के साथ लिया सकता है, उनमें पं. रविशंकर शुक्ल का नाम भी महत्वपूर्ण है। वे नवीन् मध्यप्रदेश के निर्माता तो थे ही, संपूर्ण भारत में उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व का प्रभाव था।
पं. शुक्ल का जन्म 2 अगस्त 1877 को सागर नगर में खुशीपुरा वार्ड में हआ था। सन् 18SS में उन्होंने प्रायमरी शक्षा तथा सन् 1895 में मैट्रिक परीक्षा पास क 1899 में बी. ए. करने के बाद शुक्लजी जीवन-संग्राम में कूद पड़े तथा क्रमश: ऊलि
के सिद्धांति को लेकर आगे बढ़ते रहे । कुछ समय तक वे शिक्षक भी रहे। बाद में उन्होंने एल. एल.बी. की परीक्षा पास की। उन्होंने 1897 के कांग्रेस अधिवेशन (अमरावती) में एक स्वयंसेवक के रूप में भाग लिया। 1904 के बम्बवई कांग्रेस अधिवेशन में भी वे एक दर्शक के रूप मे सम्मिलित हुए
जहाँ उन्हें पहली बार गाँधीजी का दर्शन प्राप्त हुआ। 1920 में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन लाला लाजपतराय की अध्यक्षता में कोलकाता में आयोजित हुआ, जिसमें पं. रविशंकर शुक्ल ने भाग लिया व कांग्रेस को वार्षिक अधिवेशन के लिए मध्यप्रदेश आमंत्रित किया गया। कांग्रेस का वार्षिक अधिवेश विजयराघवाचार्य की अध्यक्षता में नागपुर में हुआ । जिसमें असहयोग आंदोलन का प्रभाव स्वीकृत हो गया।
5 . ठाकुर प्यारेलाल (THAKUR PYARELAL)
मध्यप्रदेश के दुर्ग जिले के अंतर्गत राजनांदगाँव तहसील के ” देहान”। नामक ग्राम में 21 दिसंबर 1897 में छत्तीगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी ठाकुर प्यारेलाल सिह का जन्म हुआ। उनकी प्रारंभिल शिक्षा राजनांदगाँव में हुई व हाईस्कूल की शिक्षा रायपुर गवरनेर्मेट हाईस्कूल से प्राप्त की आपने हिस्लाप कॉलेज, नागपुर से इण्टर की परीक्षा पास की इसी बीच पिता ठाकुर दीनदयाल सिंह की मुत्य से शिक्षा में व्यवधान पड़ा, किन्तु पडित नारायण प्रसाद की भर्थिक सहायता से बी. ए. पास करने की बाद ठाकुर प्यारेलाल सिंह ने इलाहाबाद वश्रविद्यालय से 1916 में वकालत पास की।
6 . गुण्डाधुर (GUNDADHUR)
1910 में हुए बस्तर के आदिवासियों के सशक्त द्रोह क का नेतृत्वय गुण्डधूर ने किया। बस्तर का आदिवासी विद्रोह ‘”भूमकाल” के नाम से अभिहित किया जात . 1910 ई. में बस्तर मे इन्द्रावता क तट पर हुए सशस्त्र विद्दोह की पूर्वपीठिका ब्रिटिश सरकार के दमन और उत्पीड़न ने रची।
बिटिशराज के बस्तर में हस्तक्षेप आर तदन्तर कथित भूमि सुधारों की बस्तर के आम आदिवासियों में तीव्र प्रतिक्रिया हुई। महसूल की रकम और लगान की मात्रा इतनी ज्यादा थी कि किसान क्षुव्ध हो उठे। हस्तक्षेप ने उन्हें उत्तेजित किया और उनका क्रोध प्रचंड लहरों की भांति राजसत्ता, दीवान, राजगुरू और ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफउमड़ पड़ा । विद्रोहियों की योजना थी कि चारों और ‘स्वतंत्र क्रांतिकारी सरकार’ की स्थापना की जाये गुण्डाधूर के नेतृत्व में योजना का प्रारूप तैयार किया गया जो इस प्रकार है।
अचानक धावा बोलकर ‘साम्राज्यवादी शासकों’ को धर पकड़ा जाये । टेलिफोन व तार लाइनों को ध्वस्त कर दिया जाये और डाकघरों, डाक पैटियों को नष्ट् कर दिया जावे ताकि बस्तर का शेष विश्व से संबंध विच्छेद हो जाये ।
7 . पंडित केदारनाथ (PT KEDARNATH)
बस्तर के राजगुरू पं. रंगनाथ ठाकुर के पॉँचवे पुत्र धीरनाथ ठाकुर के गभीरनाथ ठकुर के ज्येष्ठ पुत्र पं. केदारनाथ ठकुर थे । उनके अन्य तीन भाई लिलकनाथ ठाकुर, तीर्थनाथ ठाकुर एवं बैकुण्ठनाथ ठाकुर थे ।
पं. केदारनाथ ठक्र का जन्म रायपुर में लगभग 1870 ई. में हुआ था। इसके माता एवं पिता की मृत्यु एक ही दिन कातिक पूर्णिमा को हुई थी। तार द्वारा मूत्यु की सुचना पाकर जगदलपुर से रायपुर तांगे द्वारा तीन दिन में पहुँचे थे। माता-पिता की पुण्य स्मृति में इन्होंने रायपर: एक तालाब खुदवाया जिसका সम्र रामसागर रखा तालाब के किनारे एक आम का बगीचा भी लगवाया।
पं केदारनाथ ठकुर ने अपने युवाकाल में ‘बस्तर भूषण’ ग्रंथ की रचना की जिसकी समालोचना नवम्बर 1908 में सरस्वती पत्रिका एवं वेंकटेश्र समाचार फत्र ें प्रकाशित हुई । बस्तर के महाराजा रूद्रप्रताप देव बहादुर ने इनकी प्रशंसा की है।
पं. केदारनाथ ठाक्र की प्रमुख कृतियाँ बस्तर भूषण, भाषा पड्डमय सत्यनाराय् बसंत विनोद है, जिनको उन्होंने केदार विनोद नामक पुस्तक में संग्रहित किया था। जब बस्तर का नामी भूमकाल हो रहा था तब उन्होंने बस्तर विनोद नामक पुरस्तक लिखा था।
8 . डाक्टर ईश्वरीय राघवेंद्र राव ( DC ISVARIY RAGHVENDRA RAAV )
Chhattisgarh Ke Swatantrata Senani डॉ. ई. राघवेन्द्र राव के पूर्वज आध्रप्रदेश से नागपुर आए थे और फि स्थाई रूप से बिलासपुर में बस गए थे। श्री डॉ. ई. राघवेन्द्र राव बिलासपुर के एक दबंग और प्रभावी राजनैतिक नेता थे। उनके राजनैतिक रंगरमंच पर अभ्युदय ने बिलासपर में राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया। उन्होंने अंग्रेजी शासन की खिलाफ्त की और उरके सशक आंदोलन के रचनात्मक विरोध द्वारा लोगों में राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न हुई ।
उनका जन्म 4 अगस्त 1889 ई. को हुआ था। उनकी प्रारंभिक और हाईस्कूल की शिक्ष विलासपुर में हुई। उच्च शिक्षा हेतु वे लंदन गए। वहाँ उनका संपर्क क्रांतिकारियों से हुआ। बैरि्टी पास करने के बाद वे विलासपूर में वकालत करने लगे।
सन् 1920-21 के असहयोग आंदोलन में छत्तसगढ़ की ओर से प्रमुख सहयोगीरह। उनक साथ डी.के, मेहता, मिस्टर खानखोजे, ठाकुर छेदीलाल वैरिस्टर ने भी ब्रिटिश
कोर्ट का बहिष्कार किया।
9 . बैरिस्टर छेदीलाल ( BARISTER CHEDILAL)
बैरिस्टर छेदीलाल को छत्तीगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी का योगदान अतुलनीय है । ठाकुर छेदीलाल बैरिस्टर का जन्म 1887 में अकलतरा (बिलासपुर) में हुआ । अकलतरा प्राइमरी स्कूल में प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद माध्यमिक शिक्षा के लिए बिलासपुर म्यूनिस्पल हाई स्कूल में ठकुर साहब ने प्रवेश लिया। शिक्षा के साथ-साथ विभिन्न गहन रूचि थो। राजनति के प्रति इनका झुकाव बचपन सें था ।
उन दिनों राष्ट्रीय आंदोलन संपूर्ण देश में प्रभावित था, जिससे छतीसगढ़ सहित बिलासपुर भी प्रभावित था ।
सन 1901 में माध्यामक शिक्षा प्राप्त कर वे उच्च शिक्षा हेतु प्रयाग गए थे । प्राप्त करने के पश्चात् उच्चतर शिक्षा हेतु वे प्रयाग गए। विशेष योग्यता के कारण उन्हें छात्रृत्ति मिलती रही।
हैतु रायपुर आए।
इंलैण्ड के ऑक्सफ्े्ड विश्वविद्यालय से उन्होंने अर्थशासत्र,राजनीतिशास्र व इतिहास विषय लेकर बी.ए. ऑनर्स की उपाधि प्राप्त करने के बाद इतिहास में एम.ए. किया । सन् 1913 में वे बैरिस्टर की उपाधि लेकर भारत लौटे । बिलासपुर के प्रथम बैरस्टर एवं छत्तीसगढ़ के प्रथम व्यक्ति के रूप में आपने विलायत जाकर अपने देशवासियों के लिए विदेश यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया। बैरिस्टर छेदीलाल गाँधीवाद से प्रभावित होकर 1920 के असहयोग अंदोलन को संफ्ल बनाने के लिए सक्रिय रूप से जुट गए । उन्होंने वकालत का परित्याग किया।
10 . घनस्याम सिंह गुप्त (GHANSYAM SIGNH GUPT)
गुप्त जी का जन्म 22 दिसंबर 1885 को दुर्ग जिले में हुआ। बाल्यकाल से ही उनके हृदय में देश सेवा, समाज सेवा की भावना विद्यमान थो । यहीं कारण है कि बी.एस सी और एल.एल, बी. करने के पश्चात् उन्होने वकालत न करके गुरूकुल कांगड़ी हरिद्वार में गणित और भौतिक शास्त्र में अवैतनिक प्रोफेंसर के रूप में कार्य करना उचित समझा।
गुप्तजी उग्रवादी विचारधारा के समर्थक थे। 1920 में गाँधीजी ने रॉलिट एक्ट जलियांवाला बाग हत्याकाण्ड, खिलाफ्त विश्वयुद्ध, ब्रिटिश नीति के विरोध में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित किया व देश के प्रत्येक वर्ग को इस ऑंदोलन के क्रियान्वयन के लिए आमंत्रित किया। इस आमंत्रण को स्वीकार करने वाले क्षेत्रय नेताओं में घनश्याम सिंह गुप्त भी सम्मिलित थे। 1921 में उन्हें जेल की यातनाओं को अंगीकार करना पड़ा।
दुर्ग जिले के जंगल सत्याग्रह के प्रति गुप्तजी ने जबलपुर के टाउन हॉल में एकत्रित जनता को संबोधित करते हुए भाषण दिया जिसमें पुलिस के आचरण की निंदा की गई। इस भाषण के बाद उन्हें गिरतार कर 6 माह की सजा व 50 रू. जुर्माना किया गया।
11 . मुंशी अब्दुल रउफ मेहवी (MUNSHI ABDUL RAUF MEHVEE)
गुलामीर खॉं के आत्मज Chhattisgarh Ke Swatantrata Senani अब्दुल रऊफ खां का जन्म 27 माचे 1894 को रायपुर में हुआ था। दो वर्ष की आयु में ही वे पितृ सुख से वंचित हो गए । परिणाय यह कि रऊफसाहब की शिक्षा की कोई उचित व्यवस्था नहीं हो सकी, किन्तु परिस्थितियो ने उन्हें स्वावलंबन, विपत्तियों से संघर्ष करने तथा हर हालात में निर्भीक बने रहने की जो शिक्षा दी, वह उन्हें किसी स्कृल से नहीं मिल सकती थी।
मौलाना साहब ने अपनी प्रतिभा और लगन से उर्दू और फरसी का अच्छा जान प्राप्त कर लिया। साहित्य से उन्हें अनुराग था और वे अच्छे शायर भी थे। ‘महबी’ नाम से शायरी करते थे। उन पर सूफ मत का गहरा प्रभाव था। आरंभिक अवस्था में उन्हें नाटक और रंगमंच से भी प्रेम था । (एम. एम. इसहाक, छत्तीसगढ़ के रत्र, भाग 2) सन् 1920 के नागपुर अधिवेशन में वे शामिल हुए 1921 में जिला खिलाफ्त कमेटी के मंत्री भी निर्वाचित हुए। 1922 में उन्हें नौ माह की सजा हुई। 1923 में रिहा होने पर उनके स्वागतार्थ एक आमसभा आयोजित की गई।
15 . डाक्टर खूबचंद बघेल ( DC KHUBCHAND BAGHEL)
देश की आाजादी के आंदोलन और Chhattisgarh Ke Swatantrata Senani की आग में जिन्होंने युग का इतिहास लिखा उनमे एक ज्वलंत हस्ताक्षर ड. खूबचंद बघेल का भी है।
डॉक्टर साहब का जन्म रायपुर जिले के पथरी ग्रम में 19 जुलाई 1900 को हुआ । इनके पिता श्री जुड़ावन प्रसाद तथा माता श्रीमती केंतकी बाई थी। यह एक किसान परिवार बाल्यकाल से ही संवेदनशील और विवेकी डॉ. बघेल की प्रारंभिक शिक्षा गाँव पथरी में तथा आगे की शेष रायपुर में हुई। रायपुर के गवर्नमेंट हाईस्कूल में चं, द्वारका प्रसाद जी मिश्र के संपर्क में आए और राजनीति में रूचि लेने लगे । 1918 में मेटिक की परीक्षा इलाहाबाद युनिवर्सिटी से पास की।
सन् 1920 में कांग्रेस के नागपुर में आयोजित पैंतिसरवें अधिवेशन में डॉ. ब्ेल (छत्तीसगढ़) चिकित्सा शिविर में वालिंटियर के रूप में कार्य करते रहे। असहयोग आंदोलन के तहत डॉ., बघेल भी अपने मेडिकल कॉलेज की पढ़ाई छोड़कर खादी प्रचार में लग गए। जेल की सजा हुई और वहाँ से लौटकर आपने राबर्टसन मेडिकल कॉलेज, नागपुर से सन् 1925 में एल. एल, बी की परीक्षा उत्तीर्ण की । सन् 1931 तक असिस्टेंट मेडिकल अफसर के पद पर विभिन्न स्थानों में कार्यरत् रहे।
16 डाक्टर राधाबाई ( DC RADHA BAI)

छत्तीगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी (Chhattisgarh Ke Swatantrata Senani) में महिलाओ में डॉक्टर राधा बाई का भी नाम गर्व के साथ लिया जाता है . डॉ. राधाबाई का जन्म नागपुर में हुआ था। बाल्यकाल में ही उनका विवाह हुआ था. पिता, भाई एवं पति के न होने पर वह अनाथ सी हो गई। था नौ वर्ष की अल्पायु में ही वह विधवा हुई। पड़ोस ही उसका आश्रय देने वाला परिवार हो गया। मराठी तो वह जानती ही।
दाई (मिडवाईफ) का कार्य मिला। किसी जवाहर नामक सज्जन ने घर आकर उन्हें हिंदी सिखा दी।
अपने जीवन- यापन के लिए उन्होंने सेवाकार्य को ही माध्यम चुना। उन्हें नागपुरनागपुर नगरपालिका से उन्होंने अपना सेवा कार्य आरंभ किया।
कामठी, रामटेक,अकोला, बिलासपुर रेल्वे में कार्य करने के बाद 1918 में रायपुर नगरपालिका में उन्ें मिडवाईफ(दाई) का कार्य मिला। (केयूर भूषण छत्तीसगढ़ के रत्र, भाग 2, पृ.46) हर परिवार को अपना परिवार समझ कर उन्होंने दाई का कार्य किया, भले ही वह एक दाई थीं, किंतु रायपुर के नागरिकों के लिए वह एक कुशल डॉक्टर थीं । इसलिए उसके नाम के साथ लोगों ने डॉक्टर जोड़ दिया और वह डॉ. राधाबाई बन गई।
FAQ ANSWER
छत्तीसगढ़ स्वतंत्रता आंदोलन के अंतिम शहीद कौन थे?
“1857 के विप्लव में संबलप्ुर के साय परिवार की भमिका विशेष रूप से उल्लेखनीय रही। प्रथम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अतिम शहीद सुरेन्द्र साय ही थे।” 28 फरवरी 1884 को 1 बजे दोपहर असीरगढ़ के दुर्ग में स्वाभाविक मृत्य को प्राप्त हुए ।
छत्तीसगढ़ की महिला स्वतंत्रता सेनानी
डाक्टर राधाबाई ( DC RADHA BAI) छत्तीसगढ़ की महिला स्वतंत्रता सेनानी HAI . डॉ. राधाबाई का जन्म नागपुर में हुआ था। बाल्यकाल में ही उनका विवाह हुआ था. पिता, भाई एवं पति के न होने पर वह अनाथ सी हो गई। था नौ वर्ष की अल्पायु में ही वह विधवा हुई। पड़ोस ही उसका आश्रय देने वाला परिवार हो गया। मराठी तो वह जानती ही।
छत्तीसगढ़ के क्रांतिकारियों का नाम
1 .वीर नारायण सिंह, 2 . वीर हनुमान सिंह, 3. क्रन्तिकारी सुरेन्द्रसाय, 4 . पंडित रविशंकर शुक्ल, 5 . ठाकुर प्यारेलाल, 6 . गुण्डाधुर, 7 . पंडित केदारनाथ, 8 . डाक्टर ईश्वरीय राघवेंद्र राव, 9 . बैरिस्टर छेदीलाल, 10 . घनस्याम सिंह गुप्त , 11 . मुंशी अब्दुल रउफ मेहवी, 12 . पंडित वामन राव लाखे, 13 . यति यतन लाल, 14 . क्रन्तिकारी भारतीय, 15 . डाक्टर खूबचंद बघेल, 16. डाक्टर राधाबाई
छत्तीसगढ़ के महापुरुष कौन कौन थे?
1 .वीर नारायण सिंह, 2 . वीर हनुमान सिंह, 3. क्रन्तिकारी सुरेन्द्रसाय, 4 . पंडित रविशंकर शुक्ल, 5 . ठाकुर प्यारेलाल, 6 . गुण्डाधुर, 7 . पंडित केदारनाथ, 8 . डाक्टर ईश्वरीय राघवेंद्र राव, 9 . बैरिस्टर छेदीलाल, 10 . घनस्याम सिंह गुप्त , 11 . मुंशी अब्दुल रउफ मेहवी, 12 . पंडित वामन राव लाखे, 13 . यति यतन लाल, 14 . क्रन्तिकारी भारतीय, 15 . डाक्टर खूबचंद बघेल, 16. डाक्टर राधाबाई, 17 . प्रभु वल्ल्भचार्य, 18 . गुरुघांसीदास, 19. ठाकुर रामप्रसाद पोटाई, 20 .संत गहिरा गुरु, 21 . मिनीमाता