छत्तीसगढ़ की चित्रकला | Chhattisgarh Ki Chitrkala Par Nibandh

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लोक चित्रों का उद्भव और विकास

छत्तीसगढ़ एक लोक कला संपन्न प्रदेश है। छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक निवृत्ति को देखने से ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ में अनेक प्रोगैतीऐतिहासिक गुफाएं है, जिनमें आदिमानव के द्वारा बनाए हुए रेखाचित्र मौजूद हैं। इन्हीं गुफा चित्रों से लोक चित्रों का उद्भव और विकास हुआ , क्योंकि आज की पारंपरिक लोक चित्रकला भारत की आकृति रंग-रेखाएं उस काल की समग्र चित्र-परंपरा से मिलती है।

लोक-चित्रकला की समस्त आकृतियों और रंग-रेखाएं सरल होते हुए प्रतीकात्मक और संश्लेषण आत्मक होती है। लोक चित्रकला लोक चित्रकला लोक चित्रकला परंपरा में कोई अंकन निरर्थक नहीं होता।  

उसे बिंदु से सभी चित्रों का विस्तार मिलता है। चौक अथवा स्वास्तिक लोक चित्रकला परंपरा का सर्व व्यापक सबसे सारगर्भित लोक प्रतीक है । इसलिए चौक अथवा स्वास्तिक की उपस्थिति हरलोक चित्र परंपरा में केंद्रीयता के साथ है। लोक में किसी भी कार्य की शुरूआत चौक अथवा स्वास्थ्य की उपस्थिति लोग चित्र कला परंपरा का सर्व व्यापक रूप से सारगर्भित लोक प्रतीक है।

भारतीय लोक संस्कृति में चित्रकला का बीज भी स्वास्तिक को माना गया है।छत्तीसगढ़ अंचल में हर अवसर, तीज त्यौहार, व्रत में चौक का प्रचलन है। दीपावली के समय तो घर घर का कोना कोना पांडवों की कलात्मक भी बिछात दिखाई देती है ।

भारतीय चित्रकला का इतिहास 

आधुनिक भारतीय चित्रकला की जड़े प्रोगति हासिक वित्तीय चित्रों अथवा शैल चित्रों में निहित है। आज की भारतीय चित्रकला ने अपने वर्तमान स्वरूप को अनेक चरणों में होकर प्राप्त किया है। आदिम अथवा पाषाण कालीन मानव के आंतरिक सौंदर्य से उपजे काल्पनिक विंबो एवं रोजमर्रा के अनुभवों की मिश्रित भाव अभिव्यक्ति को उसने पहले व्यक्तियों अथवा गुहा व्यक्तियों पर विविध आयामों एवं रंगों में उपेरा था। हजारों वर्ष पूर्व गुफाओं की छतों और दीवारों पर अंकित रोचक चित्र आज भी सुरक्षित है,

जिसमें तत्कालीन मानव के क्रियाकलाप और विचार अनूगुंजित हो रहे हैं । ऐसे चित्रों से समय देश के अन्य हिस्सों तथा मिर्जापुर, भीम बैठका, पंचमढ़ी आदि के साथ प्रदेश के काबरा पहाड़, सिंघनपुर तथा चितवा डोंगरी में देखने को मिलते हैं।

आद्य इतिहासिक –

आद्य इतिहासिक चित्रकला के नमूने हमें सिंधु घाटी के अवशेषों में देखने को मिलते हैं । जिससे निश्चित ही तत्कालीन समय में इस विद्या के पूर्व परिपक्व होने का पता चलता है कोहरा माता कहा जा सकता है कि आज से 5000 वर्ष पूर्व भारत में चित्रकला एक विकसित विद्या के रूप में स्थापित थी।

ऐतिहासिक काल –

ऐतिहासिक कला के चित्रों के अवशेष समय सरगुजा के जोगीमारा (तृतीय द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व) , अजंता ( ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी से 5 वीं सदी तक) , बाघ ( पांचवी छठी शताब्दी) , एलोरा ( 7 वी से 9 वी शताब्दी) आदि ने मिलते हैं। इन चित्रों में क्रमशः बौद्ध धर्म जैन धर्म और हिंदू मतों का प्रभाव दिखाएं पड़ता है। पूर्व मध्यकाल में दक्षिण के चोल तथा उत्तर के pal चित्र परियों के उदाहरण मिलते हैं।

राजपूताना तो अपनी बहूआयामी चित्र सहेलियों के लिए आरंभ से विशिष्टता पूर्वक स्थापित है, शैलियों के उदाहरण मिलते हैं ‌ किंतु देश में मुस्लिम आधिपत्य के साथ चित्रकला को इस्लाम विरुद्ध मानने के कारण भारत की समृद्धि चित्रकला घर पर आ पहुंची थी,

पर मुगलों के विशेष संरक्षण से यहां फिर हिंदू फारसी चित्र शैली ने खूब उन्नति की। पुनः औरंगजेब की ताजपोशी के बाद से एवं मुगलों के पतन ने इस दरबारी चित्रकला को क्षेत्रीय संरक्षण में जाने को बाध्य किया , और फिर जन्म हुआ अनेक क्षेत्रीय शैलियों का जिनमें व्यवहार किशनगढ़ , जयपुर , ओरछा कांगड़ा, गढ़वाल , बसोहली, कुल्लू , जम्मू और कश्मीर आदि प्रमुख थे।

मुगलों के पतन के बाद मोटे तौर पर जो शैलियां आए थे वे दिल्ली-लखनऊ , राजस्थान-पंजाब , पटना , दक्षिण की तंजौर मैसूर पहली आदि थी।

आधुनिक युग भारती चित्र कला

वस्तुतः भारती चित्र कला के आधुनिक युग का सूत्रपात समानता और पर 20 वी शताब्दी के आरंभ से हुआ है । और पूर्ण शताब्दी में इस विद्या ने विश्व में सिर्फ तथा हासिल कर ली है। 19वीं शताब्दी के अंत में राजा रवि वर्मा ने यूरोपीय पद्धति के अनुरूप भारतीय चित्रकला की धारा को नई दिशा प्रदान करने की चेष्टा की।

वे तत्कालीन यूरोपीय शैली में चित्रांकन करने वाले भारतीयों में श्रेष्ठ थे, किंतु यूरोपीय शैली में उच्च स्थान प्राप्त नहीं कर सके। टैगोर बंधुओं ने चित्रकला की जीन प्रवृत्तियों को स्पष्ट किया, वे आधुनिक चित्रकला का पोषण करने वाली आधार भूमि थी। यह पहली बंगाल school के नाम से प्रसिद्ध है।

दूसरी और मुंबई के पर जेजे स्कूल आफ आर्ट्स से संबंध कलाकारों ने विभिन्न भारतीय चित्रशैलीयो जैसे अजंता , राजपूत , कांगड़ा आदि का अध्ययन कर भारतीय कला के विकसित रूप के साथ एक सर्वथा नवीन रूप प्रस्तुत किया, जो मुंबई स्कूल ऑफ आर्ट्स के नाम से जाना जाता है। इसने भारतीय चित्रकला को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर दिया।

तीसरी शैली वर्ग में उन चित्रकला प्रवृत्तियों को रखा जाता है, जिनका उद्भव स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुआ। स्वतंत्रता के उत्तर काल में कला के आयामों की अवधारणा में परिवर्तन आया । अब वह देश तथा काल की सीमाएं लांग कर स्थानीय से मुक्त होने का प्रयास करने लगे। इस वर्ग ने कला को सर्व देसी और सर्वकालिक माना।इसकी प्रेरणा का केंद्र पेरिस था। प्रवृत्तियों के नंदलाल बसु, अवनींद्र नाथ आदि प्रमुख सलाहकार हैं।


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छत्तीसगढ़ में आधुनिक चित्रकला (Chhattisgarh Ki Chitrkala Par Nibandh)

छत्तीसगढ़ प्रदेश में आधुनिक चित्रकला के केंद्र यहां के शासकीय, अर्ध शासकीय,अशासकीय कला महाविद्यालय और कला संस्थाएं हैं जिनमें प्रदेश का संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ एवं अन्य संगीत संस्थान प्रमुख है। यह संस्थाएं ही प्रदेश में विविध कलात्मक गतिविधियों का संचालन कर रही है।

यहां फाइनल आर्ट के अंतर्गत चित्रकला का अध्ययन व प्रशिक्षण कलाकारों को मिलता है। रायपुर प्रदेश का मुख्य चित्र कला केंद्र है ग्राम भिलाई इस्पात संयंत्र द्वारा संचालित आर्ट गैलरी भी इस क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य कर रही है।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख चित्रकार-

Chhattisgarh Ki Chitrkala par nibandh
Chhattisgarh Ki Chitrkala par nibandh

छत्तीसगढ़ राज्य के कलात्मक विकास में रायपुर के फरवरी कल्याण प्रसाद शर्मा, चौरागढे, ए के मुखर्जी, मनोहर लाल यादु और ए के दानी आदि का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। लोक कला के अभिप्राय में बड़ी खूबी से श्री शर्मा ने अपने चित्रों में चित्रित किया है। वर्तमान में निरंजन महावर एवं डॉ प्रवीण शर्मा आदि चित्र कला के क्षेत्र में सक्रिय है। यहां से ‘कलाकृति’ नामक पत्रिका का भी प्रकाशन होता है।

निरंजन महावर – यह पिछले 30 वर्षों से कविता, पेंटिंग, मूर्ति कला व फोटोग्राफी के क्षेत्र में सक्रिय हैं। इनकी लोक कला खंड संग्रह ने विश्व भर में प्रसिद्धि प्राप्त की। ऐ आदिवासी लोक कलाओं से संबंधित ‘भारत की आदिवासी कला’ ,छत्तीसगढ़ का विश्वकोश, ‘भारत का लोक रंगमंच’ विषयक तीन वृहद परियोजनाओं पर कार्यरत है। इनके पास आदिवासी एवं लोक कला कृतियों का महत्वपूर्ण निजी संग्रह उपलब्ध है।

डॉ प्रवीण शर्मा- इनका जन्म 18 जुलाई 1961 को रायपुर में हुआ था। यह महाकौशल फाइनल आर्ट इंस्टिट्यूट में प्राचार्य और केपी शर्मा लाइब्रेरी रायपुर में निर्देशक तथा साथ में मध्य प्रदेश तकनीकी शिक्षा मंडल भोपाल के सदस्य भी रह चुके हैं उन्होंने 42 राष्ट्रीय एवं आठ राज्य स्तरीय कला प्रदर्शनी में हिस्सा लिया है प्रोग्राम यह लगातार तीन बार भारतीय कला प्रदर्शनी या 1982-1984 अवार्ड प्राप्त हुआ है ।


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विभिन्न अवसरों में छत्तीसगढ़ की चित्रकला में चित्रकारी

चौक – चौक-बेलपुटो , पक्षियों की विभिन्न आकृतियों की श्रृंखलाबद्ध सज्जा जितनी कल्पनाशील , छत्तीसगढ़ में दिखाई देती है उतनी किसी अन्य अंचल में नहीं दिखाई देती है। वर्ष भर छत्तीसगढ़ी महिलाएं किसी त्यौहार के बहाने विभिन्न आकार के चौक बनाती है।

सवनाही – हरियाली अमावस्या को छत्तीसगढ़ी महिलाएं घर के मुख्य द्वार की दीवारों से सवनाही का अंकन करती हैं । गोबर का हाथ में लेकर 4 अंगुलियों के सहारे घर की चारों दीवारों को मोटी रेखा से घेर दिया जाता है। मुख्य द्वार के दोनों ओर की रेखा पर कुछ मानव तथा पशुओं की आकृतियां बना दी जाती हैं उनके नाम इस में शेर के शिकार का चित्रण प्रमुखता से बनाया जाता है।

सवनही के बनाने से घर में किसी भी प्रकार की बाहरी बाधा अथवा संकट नहीं आता ऐसा विश्वास किया जाता है।

आठे कन्हैया – आठे कन्हैया कृष्ण जन्माष्टमी पर मिट्टी के रंगों से भित्ती पर बनाया जाने वाला कलात्मक चित्र है, जिसमें कृष्ण के जन्म कथा का चित्रण होता है। स्त्रियां आठे कन्हैया 8 पुत्रियां बनाकर व्रत कथा कहती है।

हरतालिका – हरतालिका का चित्रण भी तीज के दिन बनाया जाता है। हरतालिका शिव पार्वती की पूजा का पर्व है इसमें महिलाएं व्रत से संबंधित वार्ता करती है। हरतालिका पार्वती की कठिन तपस्या का व्रत है।

गोबर चित्रकारी – 
दीपावली के समय गोवर्धन पूजा के दिन धान की कोठी में अनेक प्रकार के चित्र बनाए जाते हैं जिसमें अन्य लक्ष्मी की पूजा की जाती है यह चित्रांकन समृद्धि की कामना हेतु की जाती है।

घर सिंगार – गृह सज्जा कला समूचे छत्तीसगढ़ में दिखाई देती है। छत्तीसगढ़ की प्रत्येक महिला गृह सज्जा कला में पारंपरिक रूप से दक्ष होती हैं। लिपाई पुताई और दीवारों पर अलंकरण करने की शिक्षा दीक्षा लड़कियों अपनी मां से मायके में ही सीख लेती है।

लिपाई की हुई दीवार पर गेरू , काजल,पीली मिट्टी से घर के मुख्य द्वार के आसपास और बाहरी दीवार पर छत्तीसगढ़ी महिलाएं विभिन्न ने ज्योति मिट्टी रूप अलंकार पैटर्न बना बनाती है जिससे घर कला वीथिका में बदल जाती है।

रंगों का संयोजन और रूप तारों की संतुलन इतनी समन्वयकारी होता है कि किसी का भी ध्यान घर की दीवारों पर टिके बगैर नहीं रहता है।

विवाह चित्र – विवाह आदि अवसरों पर छत्तीसगढ़ी में चितेर जाति के लोग दीवारों पर विभिन्न मिट्टी से चित्र बनाने के लिए आमंत्रित किए जाते हैं। जो द्वारा सज्जा के साथ पशु पक्षियों देवी-देवताओं विवाह प्रसंग आदि के अलंकरण प्रिय चित्र बनाते हैं।

नोहडोरा – छत्तीसगढ़ी महिलाएं नया घर बनाते समय दीवारों पर मिट्टी से सज आत्मक अंकन गहरे अलंकरण बनाती है, जो कई वर्षों तक दीवारों पर बने रहते हैं, जिससे छत्तीसगढ़ी में नोहडोरा डालना कहां जाता है थोड़ा विराम यहां एक प्रकार की उद्रेखन कला है । जो गीली मिट्टी से दीवार पर चित्रित या बनाई जा सकती है।

उबले हुए रूप कारों में पशु पक्षी, फुल पत्ते, बेल बूटे पेड़ पौधे यहां तक कि कभी-कभी मिथीय की कथा चित्रों का निर्माण भी महिलाएं कर देती हैं जिसमें देवी देवताओं की मूर्तियां विशेष होती है।

छत्तीसगढ़ी महिलाएं किसी भी जगह रहे वे दीवारों पर चित्र अवश्य बनाती हैं इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि लोक चित्रकला का निर्वाह छत्तीसगढ़ महिलाओं के जीवन का हिस्सा है।

बालपुर लोक चित्र शैली – इसी तरह महानदी के किनारे बसे गांव में विभिन्न मायथोलाजिकल का चित्र बनाने वाले चित्र कलाकार दीवारों पर विस्तृत चिन्ह कथाएं बनाते हैं जिसे बालपुर लोक चित्र शैली के नाम से जाना जाता है छत्तीसगढ़ में चितेर जाति के लोग उड़ीसा से आकर बसे हैं और वे पेशेवर कलाकार हैं रहस की बड़ी मूर्तियां भी चित्र लोग ही बनाते हैं।

गोदना- छत्तीसगढ़ी महिलाएं गोदना प्रिय हैं। वाह हाथ पैर गला पर छत्तीसगढ़ी महिलाएं आज भी एक ना एक दिन गुदना अवश्य लिखवाती है । गोदना आकृतियां अत्यधिक सुंदर अर्थ पूर्ण और शुघड होती है। गोदना लोक जीवन के प्रतीक चिन्ह है मरने के पश्चात यही गुदना मनुष्य की पहचान बताते हैं। गोदना लिखना और धारण करना दोनों एक एक जीवंत कला है।


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